भारत के प्राचीन इतिहास में चुनार वह पवित्र स्थल है जहाँ शक्ति, संपदा और सभ्यता—तीनों का संगम दिखाई देता है। गंगा के किनारे बसा यह कस्बा सिर्फ एक किला नहीं, बल्कि सदियों के संघर्ष, उत्थान और समृद्धि का जीवंत साक्षी रहा है। यहाँ का चुनार किला, पहाड़ों का वैभव, घाटों की सांस्कृतिक विरासत और आसपास की प्राकृतिक संपदा ने न केवल स्थानीय शासकों, बल्कि मुग़लों और अंग्रेजों तक को हमेशा आकर्षित किया।
1562 में मुगल सम्राट अकबर ने चुनार किले पर कब्ज़ा किया। यह सिर्फ आक्रमण नहीं था—यह उत्तर भारत की सत्ता संतुलन को बदलने वाली घटना थी।
किले के तत्कालीन नरेश पर दो हाथियों की हत्या का आरोप लगाया गया और इसे आधार बनाकर अकबर ने जौनपुर, वाराणसी और जमानियां के कुछ प्रभावशाली नरेशों का साथ लेकर चुनार पर चढ़ाई की।
यह वही किला था जिसे राजा विक्रमादित्य के बड़े भाई भर्तृहरि की समाधि के बाद भव्य स्वरूप दिया गया था। इसके दीवारों में दुर्लभ रत्न जड़े थे, जिन्हें मुगल आक्रमणों के दौरान निकाल लिया गया और किले को भारी क्षति पहुँची।
छानबे का किस्सा: 96 हजार बीघे जमीन और गणिका की कथा
चुनार और कंतित क्षेत्र की लोककथाओं में सबसे रोचक कहानी है—छानबे क्षेत्र की।
आज जिस इलाके को लोग “96 ब्लॉक” के नाम से जानते हैं, उसके पीछे एक अनोखी दंतकथा है। एक नृत्यांगना ने कंतित नरेश से प्रतिज्ञा ली कि—
“जहाँ-जहाँ मेरे नाजुक पाँव पड़ेंगे, उतनी ज़मीन मेरी होगी।”
पूरा दिन चलने के बाद जब साया ढला, तो उसके कदमों ने 96 हजार बीघे को नाप लिया। इसी घटना के नाम पर यह क्षेत्र आज भी “96” कहलाता है। बाद में सत्ता गहरवार क्षत्रियों के पास आई और कालांतर में अंग्रेजों के आने तक यह कथा लोकमानस का हिस्सा बनी रही।
चुनार से मिर्जापुर: व्यापार, समृद्धि और अंग्रेजों की महत्वाकांक्षा
चुनार के दक्षिण में विस्तृत वन संपदा और उत्तर में गंगा का सौभाग्य—इस पूरे क्षेत्र को सदियों से समृद्ध बनाता रहा। जैसे-जैसे इतिहास आगे बढ़ा, चुनार का महत्व मिर्जापुर की व्यापारिक चमक से जुड़ता चला गया।
मिर्जापुर: जहाँ रुई के पहाड़ खड़े हो जाते थे
कभी मिर्जापुर का कोटघाट ब्रिटिश व्यापार का मुख्य केंद्र था।
इतनी रुई पैदा होती थी कि घाट पर “रुई के पहाड़” दिखाई देते थे।
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सोनभद्र, सिंगरौली और आसपास के पहाड़ी क्षेत्रों से भी रुई यहाँ आती थी
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अंग्रेजों ने कोटघाट को छोटे बंदरगाह का रूप दे दिया
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गंगा के रास्ते मिर्जापुर से कलकत्ता तक रुई भेजी जाती थी
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इस व्यापार पर सबसे अधिक टैक्स देने वाले थे प्रसिद्ध व्यापारी जंगीमल
उन्हीं के नाम पर बाद में जंगी रोड और अष्टभुजा पहाड़ी पर बना जंगीमल रेस्ट हाउस मशहूर हुआ।
डंकनगंज की कहानी – जब वाराणसी के जिलाधिकारी ने बदली व्यापार की दिशा
1787–1795 के बीच वाराणसी के जिला मजिस्ट्रेट जोनाथन डंकन की नज़र जब इस क्षेत्र की व्यापारिक चमक पर पड़ी, तो उन्होंने मिर्जापुर को व्यापारिक हब बनाने की योजना बनाई।
इसी के चलते—
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डंकनगंज का नाम डंकन के नाम पर पड़ा
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इसे व्यापारिक गतिविधियों का केंद्र बनाया गया
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कॉटन, लाख, पत्थर और धातु का सबसे बड़ा बाज़ार यहीं विकसित हुआ
चुनार की सुरक्षा + मिर्जापुर की व्यापारिक प्रकृति = अंग्रेजों के लिए अत्यंत रणनीतिक संयोजन।
स्वदेशी कॉटन मिल और आगजनी की घटना
मिर्जापुर के प्रतिष्ठित सिंहानिया परिवार की पुतलीघर में बड़ी स्वदेशी कॉटन मिल थी।
इसी मिल में अचानक लगी आग को लेकर कई प्रश्न उठे—
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इसमें JK कंपनी के संस्थापक जुग्गीलाल भी काम करते थे
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ब्रिटिश प्रशासन ने घटना की जांच नहीं कराई
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माना गया कि अंग्रेज़ स्थानीय उद्योग को कमजोर करना चाहते थे
यह घटना उस दौर के व्यापारिक संघर्ष की सच्ची कहानी कहती है।
ब्रिटिश और मुग़ल—दोनों का प्रिय क्यों था यह क्षेत्र?
गंगा की उपलब्धता
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विशाल वन संपदा
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धातु, फल, लकड़ी और रत्नों की संभावना
चुनार व मिर्जापुर—सदियों का धन केंद्र
महारानी विक्टोरिया तक यहाँ आई थीं और संन्यासी गिरि समुदाय के प्रमुख महन्थ परशुराम गिरि से मिलीं। इससे पता चलता है कि चुनार–मिर्जापुर सिर्फ भौगोलिक नहीं, आध्यात्मिक और आर्थिक शक्ति का भी केंद्र था।
Report Source & Idea : वरिष्ठ पत्रकार आदरणीय




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