चुनार के प्रसिद्ध कजरी गायक और अखाड़े के प्रतिनिधि प्रसिद्ध कजरी गायक बफ़त मियां के कजरी का एक बोल था कि 'जन जानित हो रामा कि जइब सवनवा में, बांध लेहित तोके अचरवा में" कजरी वही अंचरा है।
यह जन्म के समय गाये जाने वाले 'सोहर' और मृत्यु व वियोग में गाये जाने वाले निर्गुण से भिन्न है। जब राम नरेश त्रिपाठी एक बार खेत के डांड़ पर खड़ा होकर कुछ कजरैतिन की कजरी सुन रहे थे, तो वह फिसल कर गिर गए।
उन्हें तब महसूस हुआ कि कजरी जीवन के इस पार या उस पार गाये जाने या सुने जाने की विद्या नहीं हैं, बल्कि कजरी जीवन के बीच में पति -पत्नी और परिवार के नोक- झोंक, प्रियसी और प्रेमी के मिलन और बिछुड़न के बीच का राग अलाप है। यह अंचरा का बंधावट है।
यह सावन और सुहाग का वह मेलजोल है जिसके अंतर्चेतना में अनुराग है और वैराग्य भी है। जहाँ अनुराग है वह गुलज़ार है और जहाँ वैराग्य है वहाँ विरह और सूनापन है।
मिर्ज़ापुर गुलज़ार हो रहा है तो बनारस की गली सुना हो रही है। कजरी, सावन की फुहार और सुहागन का श्रृंगार है।
'पिया सेजिया सजादेब चुन- चुन के, आवा रंगून से ना', आगे....
पिया सेजिया सजाईब, दीया जल्दी बुझाइब,
हो, पिया सेजिया सजाईब, दीया जल्दी बुझाइब,
तोके गरवा लगाइब घूम-घूम के, हाथ-गोड़ चूम के ना"
अंचरा का बांध और रस जो कजरी लोकगीत में है, वह न तो ठुमरी में है और न ही दादरा में है। इसके पीछे कारण यह है कि लोक जीवन के अंचरा से कजरी का अंचल लगाव है।
एक कजरी यह भी है ..
हरे रामा गरजे ले मास सवनवा,
अंगनवा, गिर- गिर जाला ना,
मिर्ज़ापुर के प्रसिद्ध साहित्यकार बन्द्री नारायण प्रेमधन ने कजरी की कौतूहलता का बड़ा ही रोचक विवरण दिया है। उन्होंने मिर्ज़ापुर में कजरी के उठान, ठहराव और पतन के साथ उस मर्म को भी बताया है जिसे कजरी का 'आध्यात्म' भी कह सकते हैं। उनकी कजरी आध्यात्मिक होने की कोशिश करते हुए भी सांसारिक दुनियां का सफर करती हुई, सावन में नाचती- गाती हरे मैदान में पसर जाती है।
बोल.....
हरि अईहे गोसाईं,
कजरी रात जगमगाई,
बिन पायल, पायलिया के सोर भइनी,
नाच-नाच भोर भइनी ना, घटा घनघोर भइनी ना।
कजरी का जुड़ाव शहनाई से उतना ही है, जितना भक्त और भगवान का है। बिना शहनाई के कजरी बिना पिया के प्रियसी के जीवन के समान है। कजरी जब शहनाई के सहारे झूमता है तो मानों बागों में मोर का नाच हो रहा है।
कजरी लोकगीत, काशी के कजरौटा और मिर्ज़ापुर के करिखा से कजरी का उद्द्भव हुआ है। वह कजरौटा शिव हैं और उत्तरवाहिनी माँ 'कज्वला' विंध्यवासिनी बनारस की ओर प्रवाहमान करिखा हैं। कज्वला माँ विंध्यवासिनी का उपनाम है।
काशी में मिर्ज़ापुर कजरी प्रसिद्ध तो हुआ मगर मिर्ज़ापुर में इसका जन्म हुआ। आज भी लोक कजरी गायक अपनी पहली कजरी माँ विंध्यवासिनी को भेंट करते हैं, और कजरी को जगाते हैं। गुरही जलेबी और रतजग्गा की परंपरा मिर्ज़ापुर की रही हैं, यहाँ कजरी गाया भी जाता है और लोग मान्यता में खेला भी जाता है।
एक पक्ष बोलता है-
पत्नी पति से कहती है...
पिया मेहंदी लिया द मोती झील से जा के साइकिल से ना,
पिया मेंहदी लियावा छोटकी ननदि पिसावा,
हमरे हथवा लगा द कांटा कील से जा के साइकिल से ना।।
अब दूसरा पक्ष कहता है-
धनी मेहंदी लियाईब, हम तोहसे पिसवाइब,
हमरे बहिनी के लगावा, गिन - गिन के, चढ़े रस भिन के ना....
कजरी के बारे में लिखने और कहने को बहुत कुछ है, हमारे यहाँ बिरहा में भी कजरी को गाया जाता है। मिर्ज़ापुर के विश्व प्रसिद्ध बिरहा गायक डॉ. मन्नू यादव जी कजरी के जानकार गायक हैं। उन्होंने 'कजरी मीमांसा' नामक पुस्तक भी लिखी है। रोजन अली भी मिर्ज़ापुर में कजरी के मशहूर कजरी गायक हैं।
-प्रवीण वशिष्ठ (लेखक लोक इतिहास एवं संस्कृति विषय के जानकार हैं)
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