Monday 4 July 2022

शक्तेशगढ दुर्ग Adgadanand Ashram | Story Of Siddhanth & Shaktesh Garh Fort

Adgadanand Ashram: आज मैं आपको रहस्यमयी घाटियों में ले चल रहा हु जिसे सकतेशगढ कहते है और इसी के पास सिद्धनाथ की दरी है जहा पुरे वर्षाकाल में सैलानियों का ताता लगा रहता है

शक्तेशगढ दुर्ग-






यह दुर्ग चुनार से दक्षिण 18 किलोमीटर की दुरी पर स्तिथ है यह दुर्ग 24.58उत्तरी अशांश एवं 40.50. पूर्वी देशांतर पर बना है यह किला सम्राट अकबर के समय कोलो पर नियंत्रण रखने के लिए राजा शक्ति सिंह ने अकबर से अनुमति लेकर बनवाया था घने वन के मध्य बना यह दुर्ग चारो ओर से सुरक्षित है इसे दो पर्वत श्रेणियों के मध्य एक संकरे मार्ग पर बनवाया गया है इस किले के पास एक छोटे देवालय की आधारभक्ति है 




इसके सम्बन्ध में कथा प्रचलित है ऐसा सुना जाता है जिस जगह को गढ़ निर्माण हेतु पहली बार चुना गया था वह एक दुर्गम गुफा के अत्यंत निकट पड़ती थी जिसमे उस समय के समर्थ साधक सिद्धनाथ रहते थे 



गढ़ निर्माण की बात सिद्धनाथ जी ने जब सुनी तो उन्होंने राजा से दो बातें कही पहली बात यह की उन्हें किसी भी शांतिपूर्ण स्थान पर रहने दिया जाये और दूसरी यह की वह जहा कहे वहा दुर्ग बने सिद्धनाथ की बात मानते हुए राजा ने उनसे दुर्ग के भीतर रहने की प्राथना की आगे चलकर जब दुर्ग का निर्माण हुआ तब सिद्धनाथ जी अन्यंत्र चले गए और उन्होंने दुर्ग में रहने के लिए अपने भाई भूपतिनाथ को भेज दिया बाद में इसी भग्न आधार भीत्ति के भीतर बने देवालय में भूपतिनाथ रहते थे 




यह दुर्ग जब कतींत नरेश के अधीन आया तो उन्होंने इसमें पहली बार प्रवेश करने पर इसके मुख्य द्वार के बाहर एक भैंसे की बलि दी भैंसे की बलि कथा सम्बन्ध में कहा जाता है की किसी समय मोहनवादी सेनापति ने इस पर अधिकार हेतु आक्रमण किया किन्तु वह असफल रहा इस प्रयास में वह मार डाला गया तथा उसकी आत्मा किले के द्वार पर झूलने लगी



इस पर किले के भीतर के कारण लोग रहने से कतराने लगे तब राजा ने इसके निवारण के लिए सिद्धनाथ से प्राथना की तब सिद्धनाथ जी ने फिर उसी स्थान पर भैस की बलि देकर मोहनवादी के दुष्टात्मा को वहा से हटा दिया अकबर के पूर्व जब यह दुर्ग नही बना था तब यह कोलो के अधिकार था तथा इस क्षेत्र को इसलिए कोलना भी कहा जाता था इसके आस पास के गांव में कोल भील और मुसहर तथा दलित जातीय रहती थी 

यहा के कोल इतने शक्तिशाली थे की अंग्रेजो के पूर्व वे सरकार या राजाओं को कोई कर नही देते थे जरगो नदी के तट पर बने इस दुर्ग में बुर्ज बने हुए है इसमें एक शिश महल तथा अतिथि भवन भी है किसी समय यहा लोग कतींत नरेश के आज्ञा से लोग रहते थे जंगली जानवरों का शिकार करते थे यहा बहुत ही हिंसक पशुओं की जनसख्या बहुत ज्यादा थी अंग्रेजो के समय में यहा अनेक अधिकारी शिकार के लिए आया करते थे 

इस दुर्ग के आंगन के पिछवाड़े से नदी जल तक सुरंग भी बनी हुयी थी जिसमे से होकर रानिनिवास की महिलाये स्नान करने के लिए जाती थी दुर्ग के चारो ओर खाइयों के बनाने से यह दुर्ग अपने समय में सबसे सुरक्षित दुर्ग माना जाता था एक समय इस दुर्ग के पास बने पक्के घाटो पर लोग घड़ियालों का भी शिकार करते थे लेकिन अब यह सब यहा विलुप्त हो चूका है


घने जंगलों के काटे जाने से यहा निर्जनता बढ़ी किन्तु हरीतिमा कम हो गयी आजकल यहा इस दुर्ग में परमहंस आश्रम स्तिथ है जहा स्वामी अजगड़ा नन्द महाराज (adgadanand swami) जी रहते है पहले यहा की यात्रा अत्यंत दुर्गम और कठिन थी 
लेकिन चुनार से रावसटगंज चुर्क रेल लाइन का जब 14 जनवरी 1954 को देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने उद्घाटन किया तब ये उपेक्षित क्षेत्र भी आवागमन के योग्य हो गया अब यहा सड़क एवं रेल मार्ग द्वारा आसानी से पहुचा जा सकता है 




सिद्धनाथ की दरी इन दोनों मार्गो के अत्यंत निकट है इस दुर्ग से लगभग डेढ़ किलो मीटर दक्षिण दिशा में बढ़ने पर जो अंतिम शिला खण्ड की चोटी है वही एक कन्दरा है यही सन्त साधक सिद्धनाथ जी की तपस्या स्थली है जैसा पहले कहा गया है की राजा शक्ति सिंह इसी के पास दुर्ग का निर्माण कराना चाहते थे किन्तु सिद्धनाथ के आदेश पर उन्होंने वर्तमान दुर्ग का निर्माण डेढ़ किमी पीछे करवाया पिछले वर्षों से इसके अवशेष दिखलाई पड़ते रहे इसी कन्दरा के निकट सिद्धनाथ जल प्रपात है जो नीचे लगभग 300 फिट की घाटी में गिरता है 



वर्षाकाल में जब अच्छी वर्षा हो जाती है तब यह जल प्रपात अपनी पूरी क्षमता से गिरने लगता है प्रपात का दृश्य अत्यंत मनोरम और मुग्धकारी है लोग यहा आने पर घण्टो इस प्रपात को देखते है इस प्रपात वाले शिलाखण्ड के ठीक बिच वाला शिलाखण्ड मुख्य शिलाखण्ड के किनारों के सहारे टिका है 

मध्य वाला भाग प्रपात के मध्य किसी पुल की भांति लटक रहा है इसके ऊपर और नीचे बहने वाला प्रपात जल घाटी के आधार पर बनी झील में एकत्र होता है लेकिन प्रपात के ऊपर से देखने पर इसकी विशालता स्पष्ट प्रतीत होती है प्रपात का जो जल नीचे घाटी स्तिथ छोटी झील में एकत्र होता है 



यही जरगो नदी की उदगम स्थल है स्वतंत्रता के पूर्व जब यातायात के साधनों का अभाब था तब जोखिम उठाने वाले सैलानी ही यहा आते थे किंतु सन,1954 में रेल मार्ग तथा सड़क मार्ग बन जाने से लोगो की भीड़ यहा बढ़ती जा रही है अब तो वर्षा काल में रविवारों को यहा हजारो गाड़िया और सैलानी इकठ्ठे हो जाते है 

अब इसके सौंदर्यीकरण के लिए वन विभाग ने जो कदम उठाये तथा व्यवस्था की है इससे इसका आकर्षण और भी बढ़ा है इस पहाड़ी भूमि पर अन्य स्थानों से आकर लोग बस रहे है खेती करा रहे है 

यह सम्पूर्ण क्षेत्र में इन सबके बावजूद अपनी रहस्यमता निर्जनता तथा गुहा, कंदराओं के कारण किसी तिलिस्मी उपन्यास के भांति लगता है और इन्ही रहस्यमयी स्थानों को अपनी कल्पना शक्ति के बल पर स्वर्गीय खत्री ने अद्भुभुत तथा अन्यतम बनाकर अपने उपन्यासों में अमर कर दिया है आप भी आइये इस तिलिस्मी में खो जाने के लिये 


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